॥ हरि: शरणम्‌ !॥

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

यदि भगवान्‌ के पास कामना लेकर जायँगे तो भगवान्‌ संसार बन जायँगे और यदि संसार के पास निष्काम होकर जायँगे तो संसार भी भगवान्‌ बन जाएगा। अत: भगवान्‌ के पास उनसे प्रेम करने के लिए जाएँ और संसार के पास सेवा करने के लिए, और बदले में भगवान्‌ और संसार दोनों से कुछ न चाहें तो दोनों से ही प्रेम मिलेगा। - स्वामी श्रीशरणानन्दजी

संतवाणी

मानव सेवा संघ का दर्शन

‘मानव सेवा संघ’ जैसा कि सर्वविदित है, साधकों का संघ है जिसका आदर्श वाक्य है “मानवता में ही पूर्णता निहित है।”
संघ का उद्घोष है “सर्वश्रेष्ठ जीवन/वास्तविक जीवन प्राप्त करना मानव मात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है।”
जो मेरे पास है, वह मेरा नहीं है, मेरे लिए नहीं है, जो मेरे पास नहीं है वह मुझको नहीं चाहिये। (अप्राप्त की कामना न करें)।
दुःख-निवृत्ति, परमशान्ति, स्वाधीनता एवं प्रेम सभी को अभीष्ट है, और उसकी मौलिक माँग है।
मानव जीवन की पूर्णता इसी में है, कि उसका शरीर जगत् के काम आ जाए, उसका हृदय प्रभु-प्रेम से भर जाए तथा त्याग द्वारा वह स्वाधीन होकर आत्मसंतुष्ट हो जाए।

शरीर विश्व के काम आ जाए
अहम् अभिमान शून्य हो जाए
हृदय प्रेम से परिपूर्ण हो जाए

अपने को सब ओर से हटाकर अपने में ही अपने प्रेमपात्र का अनुभव करना अनन्य भक्ति है।

सत्संग ही मानव स्वधर्म है तथा परम पुरुषार्थ है। सत्संग का अर्थ है, जीवन के सत्य को स्वीकार करना। जीवन के सत्य को स्वीकार करने पर कर्तव्यपरायणता, असंगता तथा आत्मीयता स्वतः प्राप्त होती है, और फिर मानव योग, बोध तथा प्रेम से अभिन्न हो जाता है। जीवन के सत्य को स्वीकार करने में देश-काल जाति, मत, मान्यता, सम्प्रदाय आदि की भिन्नता कोई अर्थ नहीं रखती है। त्याग, विवेक और प्रीति के द्वारा मानव बनता है।

मानव जीवन कर्त्तव्य का प्रतीक है। अपने अधिकार का त्याग और दूसरों के अधिकार की रक्षा ही मनुष्य का परम पुरुषार्थ है। दूसरों को अधिकार देने से और उनके अधिकार की रक्षा से जीवन जगत् के लिए उपयोगी होगा एवं अपना अधिकार त्याग देने से अपने लिए उपोयोगी होगा।

मानव सेवा संघ किसी मत, सम्प्रदाय आदि का आग्रही या विरोधी नहीं है, वह जीवन-विज्ञान का आदर करते हुये मानव-मात्र को कर्तव्यनिष्ठ होने की प्रेरणा देता है। जीवन-दर्शन का आदर करते हुये यह सभी को देहातीत अविनाशी तत्व से अभिन्न होकर परम स्वाधीन जीवन पाने की प्रेरणा देता है। अपने विकास द्वारा समस्त विश्व का विकास सम्भव है, और मानवता ही वास्तविक जीवन है।

मानव सेवा संघ प्राप्त वस्तु, अवस्था, परिस्थिति आदि के सदुपयोग का पाठ पढ़ा‌‍‍‌‍‌ता है। उन्हें परिस्थितियों की दासता से मुक्त कर परिस्थितियों से अतीत के जीवन में प्रवेश करने का अमर संदेश देता है।

व्यक्तिगत भिन्नता के तथ्य को स्वीकार करता हुआ 'मानव सेवा संघ' प्रीति तथा साध्य की एकता में आस्था रखता है। इसी आधार पर 'संघ' यह प्रेरणा देता है कि हम व्यक्तिगत विचार का अनुसरण करें और सभी विचारधाराओं का आदर करें। 'मानव सेवा संघ' की यह मान्यता है कि:-

  1. प्रत्येक मानव में मानवता बीजरूप में विद्यमान है।
  2. विद्यमान मानवता को विकसित करने में मानवमात्र समर्थ है।
  3. अपने विकास में वह सर्वथा स्वाधीन है।
  4. सत्संग के द्वारा मानव मात्र साधननिष्ठ होकर अपने लक्ष्य से अभिन्न हो सकता है।
  5. ए़क व्यक्ति के मानव हो जाने पर सम्पूर्ण समाज सुधर सकता है, क्योंकि व्यक्ति के निर्माण में ही समस्त-विश्व का कल्याण है।

सेवा, त्याग तथा प्रेम द्वारा रागद्वेष का अन्त कर स्थायी शान्ति, निर्वैरता एवं एकता स्थापित हो सकती है—यही मानव सेवा संघ का पवित्र स्वरुप है।