॥ हरि: शरणम्‌ !॥

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

यदि भगवान्‌ के पास कामना लेकर जायँगे तो भगवान्‌ संसार बन जायँगे और यदि संसार के पास निष्काम होकर जायँगे तो संसार भी भगवान्‌ बन जाएगा। अत: भगवान्‌ के पास उनसे प्रेम करने के लिए जाएँ और संसार के पास सेवा करने के लिए, और बदले में भगवान्‌ और संसार दोनों से कुछ न चाहें तो दोनों से ही प्रेम मिलेगा। - स्वामी श्रीशरणानन्दजी

मानव सेवा संघ-प्रतीक

  1. बाहरी वृत्त- समाज का प्रतीक है।
  2. वृत्त के अन्दर त्रिभुज-मानवता-युक्त मानव का प्रतीक है।
  3. जहाँ कहीं तीन बातें मिलकर एक ही बात की पुष्टि करती हैं उसे तत्व (Trinity) कहते हैं, अर्थात्‌
    तीन मिलकर एक और प्रतीक-विज्ञान (Science of Symbology) में तत्व का प्रतीक माना गया है त्रिभुज।

मानव सेवा संघ की भाषा में मानव किसी आकृति विशेष का नाम नहीं है, अपितु जिस व्यक्ति में मानवता है वही मानव है। मानवता के निम्नलिखित तीन लक्षण हैं-

(क) विचार,भाव और कर्म की भिन्नता होते हुए भी स्नेह की एकता (प्रेम)।

(ख) अभिमानरहित निर्दोषता (त्याग)।

(ग). अपने अधिकार का त्याग एवं दूसरों के अधिकार की रक्षा (सेवा)।

4. मानवता के उपर्युक्त तीनों लक्षण प्रतीक में त्रिभुज के भीतर पाँच पदार्थों द्वारा अभिव्यक्त किये गये हैं ।

(अ) अग्नि शिखा के तीन भाग- (क) विचार शक्ति (ख) भाव शक्ति और (ग) क्रिया शक्ति के प्रतीक हैं। ये तीनों शक्तियाँ प्रत्येक व्यक्ति में होती हैं और मनुष्य की व्यक्तिगत भिन्नता (Individual differences) इन तीनों की मौलिक भिन्नता पर ही आधारित है-

परन्तु मानव सेवा संघ इस भिन्नता के होते हुए भी स्नेह की एकता स्वीकार करता है जिसका प्रतीक है-सूर्य।

(ब) सूर्य स्नेह की एकता का प्रतीक है। वह विभिन्न स्वरुप, प्रकृति और कर्म वाले चराचर जगत्‌ को समान स्नेह से देखता है और उन्हें समान रुप से ताप और प्रकाश देकर अपना स्नेह की एकता का परिचय देता है।

इस प्रकार तीन भागों में विभाजित अग्निशिखा और सूर्य दोनों मिलकर मानवता के प्रथम लक्षण “विचार, भाव और कर्म की भिन्नता होते हुए भी स्नेह की एकता सुरक्षित रखने की बात (प्रेम)” को अभिव्यक्त करते हैं ।

(स) जल- निर्दोषता का प्रतीक है। मगर मानव सेवा संघ के दर्शन में निर्दोषता का भास सबसे बड़ा दोष है। अत: उसका परिहार करने के लिए कमल का समावेश किया गया है।

(द) कमल- निरभिमानता और असंगता का प्रतीक है। इस प्रकार जल और कमल दोनों मिलकर मानवता के दूसरे लक्षण “अभिमान रहित निर्दोष जीवन (त्याग)” को प्रदर्शित करते हैं।

(य) मानव हृदय मानवता के तीसरे लक्षण, “अपने अधिकार का त्याग तथा दूसरों के अधिकार की रक्षा” का प्रतीक है ।

मानव-शरीर-विज्ञान (Human Physiology) का यह वैज्ञानिक सत्य है कि शरीर में सबसे अधिक शुद्ध रक्त हृदय में होता है । हॄदय इस शुद्ध रक्त को सम्पूर्ण शरीर की सेवा में प्रतिक्षण भेजता रहता है। वह उस शुद्ध रक्त में से अपनी शक्ति या खुराक के लिए रक्त की एक बूँद भी नहीं लेता, यद्यपि जीवित रहकर सम्पूर्ण शरीर की सेवा करने के लिए उसे स्वयं अपने लिए भी शुद्ध रक्त की परम आवश्यकता है। वह अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए तो शरीर की उदारता पर निर्भर रहता है। शरीर की ओर से आने वाली रक्त नलिकाएँ (Coronary Articles) जो शुद्ध रक्त हृदय को देती हैं उन्हीं से यह पोषण पाता है। प्रतीक में ये नलिकाएँ हृदय में प्रदर्शित हैं। इस प्रकार मानव-हृदय मानवता के उस लक्षण का प्रतीक है जो अपने अधिकार का त्याग और दूसरों के अधिकार की रक्षा (सेवा) में निहित है।

5. त्रिभुज के तीनों कोण (angles) समाज के प्रतीक वृत (circle) से तीनों स्थलों पर मिलते हैं। यही व्यक्ति और समाज की अविभाज्यता का प्रतीक है। (Individual is Inseparable from Society) इस प्रकार मानव सेवा संघ व्यक्ति और समाज के बीच अविभाज्य सम्बन्ध को स्वीकार करता है। उस अविभाज्य सम्बन्ध को स्वीकार करता है। उस अविभाज्य सम्बन्ध का क्रियात्मक रुप ही व्यक्ति द्वारा समाज की सेवा है अर्थात्‌ व्यक्ति अपने तीन विशिष्ट गुणों द्वारा समाज की सेवा कर सकता है-

  1. व्यक्ति की निर्दोषता से समाज निर्दोष होता है।
  2. स्नेह की एकता से संघर्ष का नाश होता है ।

6. अपने अधिकार के त्याग और दूसरों के अधिकार की रक्षा से सुन्दर समाज का निर्माण होता है और इन तीनों द्वारा अपना कल्याण भी होता है, अर्थात्‌ हमें अपने कल्याण के लिए कुछ और करना है, और सुन्दर समाज के निर्माण के लिए कुछ और, ऐसी बात नहीं है, अपितु मानव सेवा संघ के दर्शन में जिस साधना से व्यक्ति का कल्याण होता है उसी से समाज का निर्माण भी होता है। ‍

मानवता में ही पूर्णता निहित है

मानवता मानवमात्र में बीजरूप में विद्यमान है। उसे विकिसित करने की स्वाधीनता अनन्त के मंगलमय विधान से सभी को प्राप्त है। मानवता किसी परिस्थिति-विशेष की ही वास्तु नहीं है। उसकी उपलब्धि सभी परिस्थितियों में हो सकती है। उसकी माँग अपने लिए, जगत के लिए एवं अनन्त के लिए अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि मानवता में ही पूर्णता निहित है।

विवेक-विरोधी कर्म का त्याग, अर्थात् कर्त्तव्य-परायणता, विवेक-विरोधी सम्बन्ध का त्याग, अर्थात् असंगता और विवेक-विरोधी विश्वास का त्याग, अर्थात् उसमें अविचल श्रद्धा जो इन्द्रिय-ज्ञान तथा बुद्धि-ज्ञान का विषय नहीं है-यही मानवता का चित्र है। कर्त्तव्य-परायणता आ जाने से मानव-जीवन जगत् के लिए, असंगता प्राप्त होने से जीवन अपने लिए और अविचल श्रद्धापूर्वक आत्मीयता स्वीकार करने से जीवन अनन्त के उपयोगी सिद्ध होता है। इस दृष्टि से यह निर्विवाद है की मानवता सभी की माँग है।

यह सभी को मान्य होगा कि विवेकयुक्त जीवन ही मानव-जीवन है। इस कारण विद्यमान मानवता को विकसित करने के लिए विवेक-विरोधी कर्म, सम्बन्ध तथा विश्वास का त्याग करना अनिवार्य है। उसे बिना किये अमानवता का अन्त हो ही नहीं सकता। अमानव को पशु कहना पशु की निन्दा है, क्योंकि अमानवता पशुता से भी बहुत नीची है और मानव को देवता कहना मानव की निन्दा है, क्योंकि मानवतायुक्त मानव देवता से बहुत ऊँचा है, अथवा यों कहो कि मानवता देवत्व से बहुत ऊँची है और अमानवता पशुता से बहुत नीची। इस दृष्टि से अमानवता का मानव-जीवन में कोई स्थान नहीं है। अमानवता के नाश में ही मानवता निहित है।

निज विवेक के आदर में ही अमानवता का अन्त है। अतः विद्यमान मानवता को विकसित करने में प्रत्येक वर्ग, समाज और देश का व्यक्ति सर्वदा स्वाधीन है। मानवता किसी मत, सम्प्रदाय तथा वाद विशेष की ही वास्तु नहीं है, अपितु वह सभी को सफलता प्रदान करने वाली अनुपम विभूति है। कर्त्तव्यपरायणता, असंगता एवं आत्मीयता मानवता के बाह्यचित्र हैं और योग, बोध तथा प्रेम मानवता का अन्तरंग स्वरुप है। योग में सामर्थ्य, बोध में अमरत्व और प्रेम में अनन्त रस निहित है। सामर्थ्य, बोध, अमरत्व और अनन्त रस की माँग ही मानव की माँग है। इस दृष्टि से मानवता में ही पूर्णता निहित है।