॥ हरि: शरणम्‌ !॥

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

यदि भगवान्‌ के पास कामना लेकर जायँगे तो भगवान्‌ संसार बन जायँगे और यदि संसार के पास निष्काम होकर जायँगे तो संसार भी भगवान्‌ बन जाएगा। अत: भगवान्‌ के पास उनसे प्रेम करने के लिए जाएँ और संसार के पास सेवा करने के लिए, और बदले में भगवान्‌ और संसार दोनों से कुछ न चाहें तो दोनों से ही प्रेम मिलेगा। - स्वामी श्रीशरणानन्दजी

मानव सेवा संघ-व्याख्या

साधन युक्त जीवन ही मानव जीवन है

जीवन का निरीक्षण करने पर हम अपने को अन्य प्राणियों की तुलना में विवेकी तथा विश्वासी पाते है। साथ ही अपने में देह-जनित स्वभावों की अनेक आसक्तियों का समूह भी देखते है। उन आसक्ति-जनित निर्बलताओं से पीड़ित होकर ही हम उन्हें मिटाने के लिए विवेक के प्रकाश में विकल्प-रहित विश्वास के आधार पर जीवन को साधन-परायण बनाने का यत्न करते है। उस साधनयुक्त जीवन को ही मानव जीवन कहते है।

साधन रहित जीवन मानव जीवन नहीं है, और साधनातीत जीवन भी मानव-जीवन नहीं है। साधन-रहित जीवन तो पशु जीवन है। और साधना साधनातीत जीवन दिव्य,चिन्मय एवं पूर्ण जीवन है। दूसरे शब्दों में मानव-जीवन नहीं है जिसमें दिव्यता, चिन्मयता और पूर्णता की लालसा एवं देह्जनित स्वभाव अर्थात इंद्रिय-जन्य आसक्ति रूपी निर्बलताए दोनों एक साथ विद्दमान है।

स्वाभाविक आवश्यकता की पूर्ति तथा अस्वाभाविक इच्छाओँ की निवृत्ति करना ही मानव-जीवन का लक्ष्य है। दिव्यता, चिन्मयता, नित्यता एवं पूर्णता की प्राप्ति मानव की स्वाभाविक आवश्यकता है। इन्द्रिय-जन्य ज्ञान में सदभाव होने से जो राग होता है, उससे प्रेरित होकर जिन इच्छाओँ की उत्पत्ति होती है, वे ही अस्वाभाविक इच्छाएँ है।

स्वाभाविक आवश्यकता उसी की होती है जिससे जातीय तथा स्वरूप की एकता हो। अस्वाभाविक इच्छा उसी की होती है जिससे जातीय तथा स्वरूप की एकता हो। अस्वाभाविक इच्छा उसी की होती है, जिससे मानी हुई एकता और स्वरूप से भिन्नता हो। दिव्यता, चिन्मयता, नित्यता एवं पूर्णता हमें स्वभावतः प्रिय हैं, पर इन्द्रिय-जन्य विषयासक्ति ने उस स्वाभाविक आवश्यकता को ढक-सा लिया है और अस्वाभाविक इच्छाओ को उत्पन्न कर दिया है। इसके फलस्वरूप हम मानवता से विमुख होकर पशुता में प्रवृत्त तथा उसकी ओर अग्रसर होते है, जों वास्तव में प्रमाद है। अत: जिससे जातीय तथा स्वरूप की एकता है उसकी प्राप्ति और जिससे मानी हुई एकता एवं स्वरूप की भिन्नता है उसकी निवृत्ति करना ही मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य है।

यध्यपि “है” कभी अप्राप्त नहीं है, परन्तु “नहीं” अर्थात वस्तु आदि जिनसे केवल मानी हुई एकता है, उनकी आसक्ति से, जों वास्तव में प्राप्त है वह अप्राप्त जैसा प्रतीत होता है, और जों प्राप्त नहीं है, अर्थात जिसकी प्राप्ति सम्भव ही नहीं है, वह प्राप्त-जैसा प्रतीत होता है। जब मानव निज विवेक के प्रकाश में अपने को “यह” से विमुख कर लेता है तब उसमे “है” का योग, बोध तथा प्रेम स्वत: हो जाता है। बस, यही “है” की प्राप्ति है। इस प्रकार “है” की प्राप्ति और “नहीं” की निवृत्ति ही मानव जीवन की पूर्णता है।