बुद्धिमत्तापूर्ण कथन
नापसन्द करने से नाशवान् की विस्मृति होगी–यह साधन हुआ; और पसंद करने से अविनाशी की स्मृति जगेगी, लालसा जगेगी–यह भजन हो गया। विचारकों ने कहा–गलत मत करो और श्रद्धालुओं ने कह दिया–सही करो। जो गलत नहीं करता मुक्त हो जाता है, और जो सही करता है वह भक्त है। जो गलत नहीं करता वह किसी को बुरा नहीं लगता, और जो सही करता है वह सबको प्यारा लगता है।
गलत नहीं करने में मनुष्य–मात्र स्वाधीन है; इसमें अन्य व्यक्ति तथा वस्तु की जरुरत नहीं होती। इसीलिए मुक्त होने में तो सभी स्वाधीन है। परंतु सही करने में किसी सबल का सहारा लेना पड़ता है, और सबल तो एक प्रभु ही है।
इसलिए भक्त होने के लिए भगवान् का सहारा लेना पड़ता ही है। परंतु दोष और कामनाओं का त्याग तो दोनों को ही करना पड़ेगा। क्योंकि जब एक दोष और कामनायें रहेंगी, तब तक तो गलत ही करेगा। गलत करने वाला न तो मुक्त ही हो सकता है और न भक्त ही।
जो ‘स्व’ में संतुष्ट हो जाता है उसमें उदारता और प्रेम की स्वत: अभिव्यक्ति हो जाती है। कारण, जब वह पराश्रय-युक्त अपने पूर्व जीवन को देखता है, तब दूसरों को भी पराश्रय से दु:खी देखकर करुणित हो उठता है और जब ‘स्व’ में संतुष्ट अपने वर्तमान जीवन को देखता है तो हमारा कोई रचयिता भी है–इस बात की याद आते ही उसके हृदय में प्रेम का प्रादुर्भाव हो जाता है।
अतएव गलत मत करो और ठीक करने का फल मत चाहो, अभिमान मत करो और प्रभु का आश्रय ग्रहण करो। ॐ आनन्द !
योग एक दैवी वैधानिक शक्ति है। जीवन के प्रत्येक पहलू में योग अपेक्षित है। शरीर-विज्ञान, मनोविज्ञान, आध्यात्म-विज्ञान एवं आस्तिक-विज्ञान योग में निहित हैं। देहाभिमानी साधकों के लिए योग का बाह्य रूप जो शारीरिक हित के लिए है, अत्यन्त आवश्यक है; आर्थात् उत्कृष्ट भोग की प्राप्ति भी योग से ही साध्य है। और देहातीत जीवन के लिए तो योग परम आवश्यक है।
Swami Sharnanandji शारीरिक क्रियाकलाप मात्र में ही योग को आबद्ध कर लेना योग की वास्तविकता से विमुख होना है। व्यक्तित्व को सुन्दर बनाना और उसके (व्यक्तित्व के) अभिमान से रहित होने के लिए भी योग अपेक्षित है। इतना ही नहीं, प्राकृतिक विधान के अनुसार सब प्रकार की शक्तियों का उद्गम भी योग है। बल, ज्ञान और प्रेम की प्राप्ति में भी योग ही हेतु है। परमात्मा से आत्मीय सम्बन्ध योग है। तत्वज्ञों का जातीय-सम्बन्ध योग है। योगियों का नित्य-सम्बन्ध योग है। अर्थात् शक्ति, मुक्ति, भक्ति, सभी के लिए योग अपेक्षित है।
अधिकतर लोग शरीर-विज्ञान और मनोविज्ञान की सीमा में ही योग को आबद्ध कर लेते हैं, जबकि योग का क्षेत्र कहीं अधिक विस्तृत है। राग की पूर्ति और निवृत्ति दोनों में ही योग हेतु है।
मानव-दर्शन पर आधारित मानव सेवा संघ की प्रणाली के अनुसार परिश्रम तथा पराश्रय से रहित होने पर सहज-भाव से नित्य योग की उपलब्धि होती है। नित्य योग में ही योग के समस्त अंगो का समावेश है। पर इस वास्तविकता को कोई बिरले ही अपना पाते हैं। शरीर और विश्व की सेवा में श्रम का स्थान है, किन्तु देहातीत, अविनाशी जीवन और अनन्त, नित्य, चिन्मय, रसरूप जीवन के लिए परिश्रम तथा पराश्रय का अत्यन्त अभाव अपेक्षित है।
योग के अंग
- कर्मेन्द्रियों को ज्ञानेन्द्रियों में और ज्ञानेन्द्रियों को मन में विलीन कर बुद्धि को सम करना योग है।
- दृष्टि बिना दृश्य के, चित्त बिना आधार के, और प्राण बिना निरोध के सम हो जाए, तो यह योग है।
- योग साधक को पञ्च कोशों, तीनों अवस्थाओं तथा तीनों गुणों से असंग कर परम तत्व से अभिन्न करने में समर्थ है।
- अल्पआहार, एकान्तवास, इन्द्रिय-निग्रह, और मौन – ये योग के बाह्य अंग हैं।
- संसार से निराशा और निस्संकल्पता योग के आंतरिक अंग हैं।
- श्रद्धापथ का साधक समर्पण से योग प्राप्त करता है।
- विचार-पथ का साधक असंगता से योग प्राप्त करता है।
योग के चार पाद
- समाधि पाद- बुद्धि की समता,
- साधन पाद- यम-नियमादि,
- विभूति पाद- दिव्यता और अभिव्यक्ति; और
- कैवल्य पाद- दृष्टा की स्वरूप में अवस्थिति।
स्वार्थ-भाव और सुख लोलुपता से रहित प्रवृत्ति योग है। विचारपूर्वक अहम् और मम् को गलाने वाली निवृत्ति योग है। आत्मीयता से जागृत अखण्ड-स्मृति योग है। जगत् और शरीर की एकता-कर्मयोग है। उदारता इसका साधन है। अहम् की अनन्त से अभिन्नता ज्ञान-योग है। विचार का उदय (बुद्धि की समता) – इसका साधन है। प्रीति और प्रेमास्पद की एकता भक्ति-योग है। आत्मीयता इसका साधन है। उदारता से कर्म-योग की, समता से ज्ञान-योग की तथा आत्मीयता से भक्ति-योग की सिद्धि होती है।
योग के साधन
अभ्यास और वैराग्य योग के मुख्य साधन हैं। चित्त का सब ओर से हट जाना और अपने ही में अपने प्रेमास्पद को पाना अभ्यास है। संसार से सच्ची निराशा आ जाने पर जीवन में ही मृत्यु का अनुभव करना वैराग्य है। अभ्यास की प्रधानता और वैराग्य की न्यूनता के कारण योग का साधक भौतिक शक्तियों के समान मानसिक शक्तियों (विभिन्न सिद्धिओं) की उपलब्धि में अपने को आबद्ध कर लेता है और योग से विमुख हो जाता है।
योग के भेद
मन के निरोध से प्राण का सम होना- यह राजयोग है। और प्राण के निरोध द्वारा मन का निरोध करना- यह हठयोग कहलाता है। इस अभ्यास के द्वारा जो अवस्था- विशेष प्राप्त होती है, उसे भी योग कहते हैं। पर वह योग का बाह्य रूप है।
समस्त शक्तियों (सिद्धियों) का प्रादुर्भाव इसी अवस्था में होने लगता है; अर्थात् योग से आवश्यक सामर्थ्य की अभिव्यक्ति होती है। करने का राग साधक में शरीर के तादात्म्य को पोषित करता है। जो करना चाहिए उसके कर डालने पर, करने का राग निवृत्त हो जाता है। करने के राग का अन्त और योग की प्राप्ति युगपद है। मन की शक्तियों का विकास करने पर साधक के संकल्प पूरे होने लगते हैं। पर संकल्प-पूर्ति में इसका उपयोग करना योग नहीं, भोग है। संकल्प-शुद्धि से संकल्प-सिद्धि होती है, किन्तु संकल्प-पूर्ति का सुख साधक को निस्संकल्पता से प्राप्त नित्य-योग से विमुख करता है।
आध्यात्मवाद और आस्तिक-वाद से रहित योग एक भौतिक विज्ञान है। वास्तविक योग के विकास की परावधि बोध और प्रेम में है। इस कारण योग, बोध और प्रेम में विभाजन नहीं किया जा सकता। साधन-रूप योग (सेवा-त्याग) ही पूर्ण योग नहीं है, साध्यरूप योग (प्रेम) ही पूर्ण योग है।
अपने को अथवा दूसरों को बुरा समझने का एकमात्र कारण भूतकाल की घटनाओं के आधार पर वर्तमान की निर्दोषता को आच्छादित कर देना है । क्योंकि कोई भी व्यक्ति सर्वांश में कभी भी बुरा नहीं होता और न सभी के लिए बुरा होता है । बुराई उत्पत्ति-विनाश-युक्त है, नित्य नहीं । जो नित्य नहीं है, उससे नित्य सम्बन्ध सम्भव नहीं है । ऐसी दशा में अपने को अथवा दूसरों को सदा के लिए बुरा मान लेना प्रमाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।