संस्थापक
ब्रह्मलीन स्वामी शरणानन्द जी महाराज एक महान् क्रान्तदर्शी, तत्वेत्ता, भगवद् भक्त एवं मानवता के संरक्षक सन्त थे। उनका आविर्भाव २०वीं सदी के प्रारम्भ में उत्तर-भारत में हुआ। बचपन में ही लगभग दस वर्ष की अल्पावस्था में ही उनकी नेत्र-ज्योति चली गई। इस दु:खद घटना से उनका सारा परिवार अथाह दुःख में डूब गया, किन्तु उस छोटे-से बालक के मन में एक प्रश्न उत्पन्न हुआ कि “क्या कोई ऐसा भी सुख है जिसमें दुःख शामिल न हो।” उत्तर मिला-ऐसा सुख तो साधु-सन्तों को प्राप्त होता है, जिसमें दुःख सम्मिलित नहीं रहता। इस उत्तर से उन्हें जीवन की राह मिल गई। इन्होंने निश्चय कर लिया कि मैं साधु हो जाऊँगा। उनके सद्गुरु रुप सन्त ने परामर्श दिया कि ईश्वर के शरणागत हो जाओ। इनके बाल्यकाल के कोमल हृदय पर सन्त की वाणी का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा, और इन्होंने ईश्वर की शरणागति स्वीकार कर ली। ईश्वर की शरणागति स्वीकार करते ही इनके मन में प्रभु-मिलन की तीव्र अभिलाषा जाग्रत हो गई। उस अभिलाषा ने संसार और शरीर के सभी बन्धनों को ढीला कर दिया और उन्नीस वर्ष की अल्पायु में ही इन्होंने विधिवत् संन्यास ले लिया।
अकिंचन, अचाह एवं अप्रयत्न होकर इन्होंने परम स्वाधीन, दिव्य, चिन्मय, रसरूप जीवन पा लिया। प्रचण्ड ज्ञान, अकाट्य युक्ति, सरल विश्वास एवं अनन्य भक्ति – ये सभी पक्ष इनमें अपनी पराकाष्ठा पर थे। इनका जीवन योग, बोध एवं प्रेम का सजीव प्रतीक था।
वाक् पटुता, उन्मुक्त अट्टहास, स्नेहिल व्यवहार ने स्वामी जी के व्यक्तित्व को अत्यन्त आकर्षक बना दिया। उनकी अहं-शून्य वाणी में ज्ञान और प्रेम की गंगा-यमुना प्रवाहित होती रहती थी। उनका उद्घोष था–
“मेरा कुछ नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिए, मैं कुछ नहीं हूँ, सर्वसमर्थ प्रभु ही मेरे अपने हैं”
द्वितीय विश्वयुद्ध के भीषण नरसंहार तथा भारत-विभाजन के समय बर्बरतापूर्ण अमानवीय कुकृत्यों से उनका नवनीत कोमल हृदय द्रवित हो गया। करुणा से द्रवित, सर्वात्मभाव से भावित सन्त-हृदय में गहन एकान्तिक चिन्तन के फलस्वरूप मानव-जीवन सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर स्वरुप ‘मानवता के मूल सिद्धान्त’ प्रकाश में आए और उसी विचारधारा तथा साधन-प्रणाली का प्रतीक बना “मानव सेवा संघ”। मानव सेवा संघ की स्थापना पूज्यपाद स्वामी शरणानन्द जी महाराज ने इस हेतु की कि इसके माध्यम से युगों-युगों तक मानव-समाज कि विचारात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक सेवाएँ होती रहें।
श्री स्वामी जी महाराज ने अपना मत दूसरों पर आरोपित नहीं किया। स्वंय दृढ़ ईश्वरवादी होते हुए भी कभी ईश्वरवाद का प्रचार नहीं किया। वे तत्वदर्शी सन्त थे। उनका विचार था कि ‘दर्शन अनेक और जीवन एक है’। उनके अन्तिम शब्द थे-
“कोई और नहीं, कोई गैर नहीं”
श्री शरणानन्द जी महाराज के मतानुसार मानव-जीवन का सुन्दरतम चित्र यह है कि –
“शरीर विश्व के काम आ जाए, अहं अभिमान-शून्य हो जाए, और ह्रदय प्रभु-प्रेम से भर जाए”
स्वामी जी महाराज जब तक इस संसार में रहे, तब तक उन्होंने अपना जीवनदायी संदेश नगर-नगर में भ्रमण करते हुए जन समाज को सुनाया और इस बात के लिए सदैव आतुर रहे कि, प्रत्येक भाई-बहन अपने कल्याण के लिए प्रयत्नशील हो और स्वंय को सुन्दर बनाकर, एक सुन्दर समाज का निर्माण करने में अपना योगदान करें।
जिस शरीर से तुम प्यार करते हो उसका एक बाह्य स्वरूप और है जिसका नाम है “मानव सेवा संघ” जो एक मात्र मानव दर्शन तथा जीवन विज्ञान से सिद्ध है। उसकी जितनी चाहो सेवा करो। अनेक शरीर नाश हो जायेंगे पर वह बना रहेगा। अर्थात् मानव सेवा संघ की यथेष्ट सेवा ही शरणानन्द की सेवा है। जिन्होंने ‘मानव सेवा संघ’ के प्रकाश को अपनाया वह सभी “शरणानन्द” से अभिन्न हो गये। शरणानन्द का अर्थ है- मानव सेवा संघ। इसके प्रति जिसकी श्रद्धा है, उसका मैं ॠणी हूँ।
२५ दिसम्बर सन् १९७४ को गीता जयन्ती के पावन पर्व पर स्वामी जी ब्रह्मलीन हो गए।