मानवता के मूल सिद्धान्त
- आत्म-निरीक्षण, अर्थात् प्राप्त विवेक के प्रकाश में अपने दोषों को देखना।
- की हुई भूल को पुन: न दोहराने का व्रत लेकर, सरल विश्वासपूर्वक प्रार्थना करना।
- विचार का प्रयोग अपने पर और विश्वास का दूसरों पर, अर्थात् न्याय अपने पर और प्रेम तथा क्षमा अन्य पर।
- जितेन्द्रियता, सेवा, भगवच्चिन्तन और सत्य की खोज द्वारा अपना निर्माण।
- दूसरों के कर्तव्य को अपना अधिकार, दूसरों की उदारता को अपना गुण और दूसरों की निर्बलता को अपना बल, न मानना।
- पारिवारिक तथा जातीय सम्बन्ध न होते हुए भी, पारिवारिक भावना के अनुरुप ही पारस्परिक सम्बोधन तथा सद्भाव, अर्थात् कर्म की भिन्नता होने पर भी स्नेह की एकता।
- निकटवर्ती जन-समाज की यथाशक्ति क्रियात्मक रुप से सेवा करना।
- शारीरिक हित की दृष्टि से आहार-विहार में संयम तथा दैनिक कार्यों में स्वावलम्बन।
- शरीर श्रमी, मन संयमी, बुद्धि विवेकवती, हृदय अनुरागी तथा अहम् को अभिमान शून्य करके अपने को सुन्दर बनाना।
- सिक्के से वस्तु, वस्तु से व्यक्ति, व्यक्ति से विवेक तथा विवेक से सत्य को अधिक महत्व देना।
- व्यर्थ-चिन्तन-त्याग तथा वर्तमान के सदुपयोग द्वारा भविष्य को उज्जवल बनाना।
[द्रष्टव्य-प्रार्थना और इन ग्यारह नियमों की विस्तृत व्याख्या मानव सेवा संघ द्वारा प्रकाशित “मानवता के मूल सिद्धान्त” नामक पुस्तक में देखें।]